जीवन जीने के लिए क्या अब बंद बोतले ही सहारा होंगी?

दोस्तों! क्या जीवन जीने के लिए बंद बोतले ही जरूरी हो जाएंगी? जी हां यह बड़ा ही संवेदनशील प्रश्न है। जिस प्रकार से आधुनिकता का दौर चल पड़ा है, उससे तो यही लगता है। आज हर कोई के मुख से यही सुनने को मिलता है "समय बदल रहा है" जो बिल्कुल सत्य है और सुन के अच्छा भी लगता है कि मनुष्य सत्य भी बोलता है। क्योंकि समाज में हर कोई मनुष्य एक दूसरे को अपने झूठ से मूर्ख बनाने पर तुला हुआ है। परंतु मनुष्य अपने अहंकार में आकर यह भूल चुका है की प्रकृति भी कोई चीज है, जिसने जीवन जीने के लिए हमें बहुत से स्रोत दिए हैं। जिनका हम बिना किसी व्यय के, बिना किसी रोक-टोक की प्रयोग करते आ रहे हैं। लेकिन प्रश्न तो यह है कि, कब तक करते रहेंगे? आखिर ऐसा समय जरूर आएगा, जब प्रकृति भी अपनी लाचारी जाहिर करेगी और जहां तक सोचा, समझा, सुना और देखा जा रहा है प्रकृति की लाचारी का समय आ गया है। प्रश्न यह है कि प्रकृति लाचार क्यों है? उसके पीछे भी मनुष्य का ही षड्यंत्र है। जीवों में मनुष्य को सबसे विकसित जीव माना गया है, विकसित होने के साथ-साथ मनुष्य के अंदर अहंकार का भाव भी पूरी तरह से आ चुका है। क्योंकि मनुष्य अपने सुख-सुविधाओं की पूर्ति के लिए प्रकृति से प्रतिदिन छेड़छाड़ करने में तनिक भी परहेज नहीं कर रहा है और खुद को प्रकृति से ऊपर समझ रहा है।
मनुष्य अपने आप में इतना बड़ा षड्यंत्रकारी जीव हो चुका है, जिसे षणयंत्र की ही रोटी, पानी, हवा और सब कुछ अच्छा लगने लगा है। प्रकृति को लाचार बनाके हम जो रोटी, पानी, हवा और कुछ भी लेने की कोशिश में हैं वह धीरे-धीरे जहर बन जाएगा। शायद मनुष्य अपने अहंकार में इस बात से पूरी तरीके से अज्ञान है या अज्ञानता दर्शाने की कोशिश कर रहा है। क्योंकि आज हम सब जागरूक हैं ऐसा माना जाता है! क्योंकि पूरे विश्व की सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पूरी तरीके से मनुष्य जाति को जागरूक करने में भिड़ा हुआ है। सच्चाई यह है कि हम जानते सब कुछ हैं पर निभा नहीं पा रहे हैं। प्रश्न यह है कि क्या हमें नहीं मालूम कि जो रोटी, पानी, हवा और कुछ भी हमें बिना किसी शुल्क के मिल रहा है उसमें प्रकृति का अहम योगदान है? तो क्या हम प्रकृति को सुरक्षित रखने में अपना योगदान नहीं दे सकते? प्रकृति को सुरक्षित करने से तात्पर्य है जो कुछ भी प्रकृति से हमें मिल रहा है उसके बदले हम प्रकृति को सुरक्षित रखें और दूषित ना करें। यदि नहीं सुरक्षित रख सके तो प्रकृति लाचार हो जाएगी और स्वच्छ वायु तथा जल के लिए मनुष्य को फिल्टर वाटर, फिल्टर एयर और मिनरल वाटर जो बंद बोतलों में मिलेंगी उनका सहारा लेना पड़ेगा। आखिर क्या क्या फिल्टर करके खाया पिया जा सकेगा और कब तक? कौन-कौन ले पाएगा बंद बोतलों में पानी और हवा का लाभ?
बड़े-बुजुर्गों के हिसाब से एक समय था जब कहीं भी पानी पीने से डर नहीं लगता था। पर अब तो पानी देखते ही सहसा मनुष्य चाहे वह कितना भी अहंकारी क्यों न हो डर सा जाता है और यह जरूर पूछ लेता है कि क्या यह पानी फिल्टर का है? यदि है तो पिएगा वरना बिन पानी पिए ही रह जाएगा। ताकि उसे किसी प्रकार का रोग ना हो जाए आखिर यह डर हमे केवल पानी पीते वक्त ही क्यों? जिस पानी से डर रहे हो उसको दूषित किसने किया? पानी को दूषित करने में हाथ किसका था? प्रकृति को लाचार किसने किया? यदि सोचोगे तो इन सभी प्रश्नों के जवाब में हम सभी को खुद के दोषी होने का प्रमाण मिलेगा। प्रश्न यह है कि हम दोषी क्यों बने? क्यों ना हम जागरूक बने? और उन सभी स्रोतों पर विचार करें जो हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं तथा बिना कुछ किए मिलती हैं।
हम एक लीटर पानी की बोतल के लिए मोटी रकम चुका तो सकते हैं, पर बिना शुल्क, बिना किसी डर के पानी पी सके आखिर ऐसी स्थिति लाने में हम पिछे क्यों? इस डर को खत्म करने के लिए बस थोड़ा सा जागरूक होने की और थोड़े से लालच को त्यागने की जरूरत है। रोज के डर को खत्म करने के लिए क्या हम इतना नहीं कर सकते? यदि नहीं की तो प्रकृति लाचार हो जाएगी और जब अपना लाचारी दिखाएगी तो स्थितियां भयावह होंगी। फिल्टर का पानी, बोतल का पानी और सिलिंडर की हवा यह सारी व्यवस्थाएं तो अमीरों के लिए है? अमीरों के द्वारा ही सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाया जाता है और झेलना गरीब तबके को होता है, क्योंकि अमीरों ने अपने लिए व्यवस्था कर ली है। प्रकृति को छेड़-कर/ दूषित कर अमीर अपनी व्यवस्थाओं के साथ जी रहा है और गरीबों को प्रदूषण का दंश विभिन्न प्रकार की बीमारियों के रूप में झेलना पड़ता है। आखिर प्रकृति अमीरों और गरीबों की तो बंठी हुई है नहीं? तो क्यों हम यह स्थिति उत्पन्न करने में लगे हुए है?
पिछले दिनों खबर आ रही थी कि चीन में 4000 मौतें तो दिन वायु प्रदूषण से हो रही है और उसके बचाव के लिए चीनी लोग ऑक्सीजन की बोतलें और मास्क का प्रयोग कर रहे हैं। आखिर क्या हम जितना स्वच्छ ऑक्सीजन प्रकृति से रोज लेते हैं, उसकी पूर्ति बोतलबंद ऑक्सीजन से हो पाएगी? बिल्कुल नहीं! और यदि होगी भी तो वही स्थिति होगी जो पानी के संदर्भ में देखा गया है कि कुछ अमीर लोग ही बंद बोतले खरीद के पानी पी पाते हैं। यानी मरना गरीब को ही है। यह पूरे तरीके से गलत है कि प्रदूषण करें सभी और भुगते कुछ लोग। मुझे तो इस बंद बोतलों में भरी स्वच्छ वायु और जल के पीछे बाजारीकरण की धमक दिख रही है, व्यवसाय का एक माध्यम नजर आ रहा है कि "प्रदूषण को डर दिखाओ और खूब पैसे कमाओ" दोष व्यवसायियों का नहीं है दोस्त दोष हमारा है। आखिर हम वायु और जल को प्रदूषित ही क्यों कर रहे हैं? क्या हम प्रकृति को प्रदूषित होने से बचा नहीं सकते? बचा सकते क्यों नहीं, पर हम कुछ करना नहीं चाहते हैं। लेकिन जरूरत आ गया है कि हम हवा और पानी को प्रदूषित होने से बचाएं। उसके ठोस उपाय भी सोचने के लिए बहुत शुल्क नहीं चुकाना होता है बस जरूरत होती है थोड़ा जागरूक बनने की और प्रकृति को कैसे संरक्षित किया जा सके उसके बारे में कुछ ठोस कदम उठाने की।
एक कहावत बड़ी प्रसिद्ध है "चार दिन सुख चालिस साल दु:ख" और ठीक इसी के विपरीत एक और कहावत भी है "चार दिन दु:ख चालिस साल सुख" तात्पर्य है कि मनुष्य को अपना क्षणिक सुख का त्याग करने की जरूरत है। ताकि उसका खुद का आगे का जीवन तथा उसकी आने वाली पीढ़ी का जीवन सुखमय व्यतीत हो सके। जीवन को लग्जरी बनाने के चक्कर में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जीवन बस आज ही भर का नहीं है और प्रकृति बस आप ही के लिए नहीं है। जरूरत है कि प्रकृति ने हमें जो कुछ भी दिया है, उसे उसी प्रकार संरक्षित रखें रहे तथा वायु और जल को प्रदूषित ना होने दें और होने से बचाएं।


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